सूरह मुहम्मद (47) हिंदी में | Surah Muhammad in Hindi

सूरह मुहम्मद “Surah Muhammad”

कहाँ नाज़िल हुई:मदीना
आयतें:38 verses
पारा:26

नाम रखने का कारण

आयत 2 के वाक्यांश “उस चीज़ को मान लिया जो मुहम्मद पर अवतरित हुई है,” से उद्धृत है। मतलब यह है कि यह वह सूरह है जिसमें मुहम्मद (सल्ल.) का प्रतिष्ठित नाम आया है। इसके अतिरिक्त इसका एक मशहूर नाम ‘किताल’ (युद्ध) भी है, जो आयत 20 के वाक्यांश, “जिसमें युद्ध (किताल) का उल्लेख था।” से उद्धृत है।

अवतरणकाल

इसकी विषय वस्तुएँ यह गवाही देती हैं कि यह हिज़रत के पश्चात् मदीना में उस वक्त अवतरित हुई थी, जब युद्ध का आदेश तो दिया जा चुका था, किन्तु अभी युद्ध व्यवहारतः आरम्भ नहीं हुआ था।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

जिस कालखण्ड में यह सूरह अवतरित हुई है, उस समय परिस्थिति यह थी कि मक्का मुअज्जमा विशेष रूप से और अरब भू-भाग में सामान्यतः हर जगह मुसलमानों को ज़ुल्म और अत्याचार का निशाना बनाया जा रहा था और उन पर जीवनकाल तंग कर दिया गया था।

मुसलमान हर ओर से सिमटकर मदीना तैयबा के शांति गृह में एकत्र हो गए थे, किन्तु कुरैश में के काफिर यहाँ भी उनको चैन से बैठने देने के लिए तैयार न थे। मदीने की छोटी-सी बस्ती हर तरफ से काफिरों के घेरे में थी और वे उसे मिटा देने पर तुले हुए थे।

मुसलमानों के लिए इस स्थिति में दो ही उपाय शेष रह गए थे या तो वे सत्य धर्म की ओर बुलाने और उसके प्रचार ही से नहीं, बल्कि उसके अनुपालन तक को त्याग कर अज्ञान के आगे हथियार डाल दें, या फिर मरने-मारने के लिए उठ खड़े हों और सिर धड़ की बाज़ी लगाकर हमेशा के लिए इस बात का फैसला कर दें कि अरब भू-भाग में इस्लाम को रहना है या अज्ञान को अल्लाह ने इस अवसर पर मुसलमानों को उसी दृढ़ संकल्प और साहस की राह दिखाई जो ईमानवालों के लिए एक ही राह है।

उसने पहले सूरह 22 (हज्ज) आयत 39 में उनको युद्ध की अनुज्ञा दी और फिर सूरह 2 (बकरा) आयत 190 में इसका आदेश दे दिया। किन्तु उस समय हर व्यक्ति जानता था कि इन परिस्थितियों में युद्ध का अर्थ क्या है।

मदीना में ईमान वालों का एक मुट्ठी भर जन-समूह या जो पूरे एक हज़ार युद्ध-योग्य पुरुष भी जुटाने की क्षमता न रखता था और उससे कहा जा रहा था कि सम्पूर्ण अरब के अज्ञान से टकरा जाने के लिए खड़ा हो जाए।

फिर युद्ध के लिए जिस सामान की ज़रूरत थी, एक ऐसी बस्ती अपना पेट काटकर भी मुश्किल ही से जुटा सकती थी, जिसके अंदर सैकड़ों बेघर मुहाजिर अभी पूरी तरह से बसे भी न थे और चारों ओर से अरब निवासियों ने आर्थिक बहिष्कार करके उसकी कमर तोड़ रखी थी।

विषय और वार्ता

इसका विषय ईमान वालों को युद्ध के लिए तैयार करना और उनको इस सिलसिले में आरम्भिक आदेश देना है। इसी सम्पर्क से इसका नाम सूरह किताल भी रखा गया है।

इसमें क्रमशः नीचे की ये वार्ताएँ प्रस्तुत की गई हैं :

आरम्भ में बताया गया है कि इस समय दो गिरोहों के मध्य मुकाबला आ पड़ा है। एक गिरोह (सत्य का इन्कार करने वालों और अल्लाह के शत्रुओं का है और दूसरा गिरोह सत्य के मानने वालों का है।)

अब अल्लाह का दो टूक फैसला यह है कि पहले गिरोह के सभी प्रयास और क्रियाकलाप को उसने अकारथ कर दिया और दूसरे गिरोह की परिस्थितियाँ ठीक कर दीं।

इसके बाद मुसलमानों को युद्ध सम्बन्धी प्रारम्भिक आदेश दिए गए हैं। उनको अल्लाह की सहायता और मार्गदर्शन का विश्वास दिलाया है। उनको अल्लाह की राह में कुरबानियाँ करने पर उत्कृष्ट प्रतिफल की आशा दिलाई गई है।

फिर काफिरों के सम्बन्ध में बताया गया है कि वे अल्लाह के समर्थन और मार्गदर्शन से वंचित हैं। उनका कोई उपाय ईमान वालों के मुकबाले में सफल न होगा और वे इस लोक में भी और परलोक में भी बहुत बुरा परिणाम देखेंगे ।

इसके बाद वार्ता का रुख मुनाफ़िकों की ओर फिर जाता है जो बड़े मुसलमान बने फिरते थे, किन्तु यह आदेश आ जाने के बाद अपने कुशलक्षेम की चिन्ता में काफिरों से साठ-गाँठ करने लगे थे।

उनको साफ-साफ ख़बरदार किया गया है कि अल्लाह और उसके धर्म के विषय में कपटाचार की नीति अपनानेवालों का कोई कर्म स्वीकृत नहीं है। फिर मुसलमानों को उभारा गया है कि वे अपनी अल्पसंख्या और बेसरो-सामान होने और काफिरों की अधिक संख्या और उनके साज-सामान की अधिकता देखकर हिम्मत न हारें।

उनके आगे संधि का प्रस्ताव करके कमज़ोरी न दिखाएँ, जिससे उनके दुस्साहस इस्लाम और मुसलमानों के मुकाबले में और अधिक बढ़ जाएँ बल्कि अल्लाह के भरोसे पर उठें और कुफ्र के उस पहाड़ से टकरा जाएँ, अल्लाह मुसलमानों के साथ है।

अन्त में मुसलमानों को अल्लाह की राह में खर्च करने का आमंत्रण दिया है। यद्यपि उस समय मुसलमानों की आर्थिक दशा बहुत दयनीय थी, किन्तु सामने यह समस्या खड़ी थी कि अरब में इस्लाम और मुसलमानों को जीवित रहना है या नहीं।

इसलिए मुसलमानों से कहा गया कि इस समय जो व्यक्ति भी कंजूसी से काम लेगा वह वास्तव में अल्लाह का कुछ न बिगाड़ेगा, बल्कि स्वयं अपने आप ही को तबाही के ख़तरे में डाल देगा।

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