सूरह मरयम (19) हिंदी में | Surah Maryam in Hindi

सूरह मरयम “Surah Maryam”

कहाँ नाज़िल हुई:मक्का
आयतें:98 verses
पारा:16

नाम रखने का कारण

इस सूरह का नाम आयत 16 “और ऐ नबी इस किताब में मरियम का हाल बयान करो” से उद्धृत है।

अवतरणकाल

इसका अवतरणकाल हबशा की हिजरत से पहले का है। विश्वसनीय उल्लेखों से मालूम होता है कि इस्लाम के मुहाजिर (हिजरत करने वाले) जब नज्जाशी के दरबार में बुलाए गए थे, उस वक्त हज़रत जाफर (रजि.) ने इसी सूरह का भरे दरबार में पाठ किया था।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

यह सूरह उस कालखंड में अवतरित हुई थी जब कुरैश के सरदार हँसी-ठट्ठा, उपहास, प्रलोभन, डरावा और झूठे आरोपों के प्रसार से इस्लामी आन्दोलन को दबाने में असफल होकर जुल्म और अत्याचार, मार-पीट और आर्थिक दबाव के हथियार इस्तेमाल करने लगे थे।

हर क़बीले के लोगों ने अपने-अपने कबीले के नव-मुसलमानों को तंग किया और तरह-तरह से सताकर उन्हें इस्लाम त्याग देने पर विवश करने की कोशिश की।

इस सम्बन्ध में विशेष रूप से ग़रीब लोग और वे गुलाम और गुलामी से मुक्त ऐसे लोग जो कुरैश वालों के अधीन की हैसियत से रहते थे, बुरी तरह पीसे गए।

ये परिस्थितियाँ जब असहनीय हो गयीं तो नबी (सल्ल.) (के आदेश के अन्तर्गत अधिकतर मुसलमान मक्का से हबशा हिजरत कर गए।) पहले ग्यारह मर्दों और औरतों ने हबशा की राह ली।

इस हिजरत से मक्का के घर-घर में कोहराम मच गया, क्योंकि कुरैश के बड़े और छोटे ख़ानदानों में से कोई ऐसा न था जिनके प्रियजन इन हिजरत करनेवालों में सम्मिलित न हों। इसलिए कोई घर था जो इस घटना से प्रभावित न हुआ हो।

विषय और वार्ता

इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखकर जब हम इस सूरह को देखते हैं तो इसमें सबसे पहले स्पष्ट रूप से यह बात हमारे सामने आती है कि यद्यपि मुसलमान एक सताए हुए शरणार्थी गिरोह की हैसियत से अपना वतन छोड़कर दूसरे देश में जा रहे थे, किन्तु इस स्थिति में भी अल्लाह ने उनको धर्म के विषय में तनिक भी चाटुकारिता से काम लेने की शिक्षा न दी, बल्कि चलते समय पाथेय के रूप में यह सूरह उनके साथ कर दी, ताकि ईसाइयों के देश में ईसा (अलै.) की बिल्कुल सही हैसियत पेश करें और उनके ईश-पुत्र होने का साफ़-साफ़ इन्कार कर दें।

आयत 1 से लेकर 40 तक हज़रत याह्या (अलै.) और हज़रत ईसा (अलै.) का किस्सा सुनाने के पश्चात् फिर इस से आगे की आयतों में समय की परिस्थितियों की एकरूपता को देखते हुए हज़रत इबराहीम (अलै.) का किस्सा सुनाया गया है, क्योंकि ऐसी ही परिस्थितियों में वे भी अपने बाप, ख़ानदान और देश वासियों के अत्याचार से तंग आकर स्वदेश से निकल खड़े हुए थे।

इससे एक तरफ मक्का के काफिरों को यह शिक्षा दी गई है कि आज हिजरत करने वाले मुसलमान इबराहीम (अलै.) की पोज़िशन में हैं और तुम लोग उन ज़ालिमों की पोज़िशन में हो, जिन्होंने उनको घर से निकाला था दूसरी तरफ मुहाज़िरों को यह शुभ सूचना दी गई कि जिस तरह इबराहीम (अलै.) स्वेदश से निकलका तबाह न हुए बल्कि और अधिक उच्च हो गए, ऐसा ही अच्छा परिणाम तुम्हारी प्रतीक्षा में है।

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