सूरह अबासा (80) हिंदी में | Surah Abasa in Hindi

सूरह अबासा “Surah Abasa”
कहाँ नाज़िल हुई:मक्का
आयतें:42 verses
पारा:30

नाम रखने का कारण

पहले ही शब्द “अ-ब-स” (त्यौरी चढ़ाई) को इस सूरह का नाम दिया गया है।

अवतरणकाल

टीकाकारों और हदीस-शास्त्रियों ने एक मत हो कर इस सूरह के अवतरण का कारण यह बताया है कि एक बार अल्लाह के रसूल (सल्ल0) की सभा में मक्का मुअज़्ज़मा के कुछ बड़े सरदार बैठे हुए थे और नबी (सल्ल0) उन्हें इस्लाम को स्वीकार करने पर तैयार करने की कोशिश कर रहे थे।

इतने में इब्ने उम्मे मकतूम (रजि0) नामक एक नेत्रहीन व्यक्ति नबी (सल्ल0) की सेवा में उपस्थित हुए और उन्होंने आप (सल्ल0) से इस्लाम के सम्बन्ध में कुछ पूछना चाहा।

नबी (सल्ल0) को उनका यह हस्तक्षेप अप्रिय लगा और आपने उनसे बेरुखी बरती। इस पर अल्लाह की ओर से यह सूरह अवतरित हुई।

इस ऐतिहासिक घटना से इस सूरह का अवतरणकाल आसानी से निश्चित हो जाता है। प्रथम यह कि यह बात सिद्ध है कि हज़रत इब्ने उम्मे मकतूम बिल्कुल आरम्भिक काल के इस्लाम लाने वालों में से हैं।

दूसरे यह कि हदीस के जिन उल्लेखों में यह घटना वर्णित हुई है उनमें से कुछ से मालूम होता है कि उस समय वे इस्लाम ला चुके थे और कुछ उल्लेखों से जाहिर होता है कि इस्लाम की ओर उन्मुख हो चुके थे और सत्य की खोज में नबी (सल्ल0) के पास आए थे।

तीसरे यह कि नबी (सल्ल0) की मजलिस में जो लोग उस समय बैठे थे, विभिन्न उल्लेखों में उनके नाम भी ज़ाहिर किए गए हैं। इस सूची में उतबह, शैबह, अबू जहूल, उमैया बिन खलफ और उबई बिन ख़लफ़ जैसे इस्लाम के निकृष्ट बैरियों के नाम मिलते हैं।

इससे मालूम होता है कि यह घटना उस समय घटित हुई थी जब अल्लाह के रसूल (सल्ल0) के साथ इन लोगों का मेल-जोल अभी बाकी था और संघर्ष इतना भी नहीं बढ़ा था कि आपके यहाँ उनके आने-जाने और आपके साथ उनकी मुलाकातों का सिलसिला बन्द हो गया हो। ये सब बातें प्रमाणित करती हैं कि यह सूरह अत्यन्त आरम्भिक काल की अवतरित सूरतों में से है।

विषय और वार्ता

देखने में इस सूरह में नबी (सल्ल0) पर रोष प्रकट किया गया है, किन्तु पूरी सूरह पर सामूहिक रूप से विचार करने पर मालूम होता है कि वास्तव में रोष कुरैश के काफिरों के उन सरदारों पर प्रकट किया गया है जो अपने अहंकार और हठधर्मी और सत्यता से लापरवाही के कारण अल्लाह के रसूल (सल्ल0) के सत्यप्रचार का उपेक्षापूर्वक रद्द कर रहे थे, और जहाँ तक नबी (सल्ल0) का सम्बन्ध है, आपको केवल प्रचार का सही तरीका बताया गया है।

आप ने नेत्रहीन से बेरुखी की और कुरैश के सरदारों की ओर उन्मुख होने की उस समय जो नीति अपनाई थी उस का प्रेरक सर्वथा सुचित और निःस्वार्थता और सत्य के आह्वान को प्रचारित एवं प्रसारित करने का भाव था न कि बड़े लोगों का सम्मान और छोटे लोगों की उपेक्षा का विचार।

लेकिन अल्लाह ने आपको समझाया कि इस्लामी आह्वान सही तरीका नहीं है, बल्कि इस आह्वान के दृष्टिकोण से आपके ध्यान देने के वास्तविक पात्र वे लोग हैं जिनमें सत्य को स्वीकार करने की तत्परता पाई जाती हो, और आप और आपके उच्च आह्वान की प्रतिष्ठा से यह बात गिरी हुई है कि आप उसे उन अंहकारी लोगों के समक्ष रखें जो अपनी बड़ाई के घमंड में यह समझते हों कि उनको आपकी नहीं बल्कि आपको उनकी ज़रूरत है।

यह सूरह के आरम्भ से आयत 16 तक का विषय है। तदान्तर आयत 17 से प्रत्यक्षतः रोष का रुख़ उन काफिरों की ओर फिर जाता है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल0) के आह्वान को रद्द कर रहे थे।

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