क्या है शिया-सुन्नी मतभेद | शिया-सुन्नी विवाद की जड़ क्या है?

मुसलमानों के बीच शिया और सुन्नी मतभेद के सम्बन्ध में भी गैर मुस्लिम गलतफहमियों का शिकार पाए जाते हैं । सामान्य मुसलमान चूँकि स्वयं इस्लामी इतिहास से अपरिचित है। इस सिलसिले में किसी स्पष्ट और संतोषजनक उत्तर देने में अपने आप को असमर्थ पाता है।

शिया और सुन्नी समुदाय मुसलमानों के दो सबसे महत्वपूर्ण समुदाय हैं। इस्लाम के मौलिक विश्वासों पर दोनों सहमत हैं । इसी तरह इस्लाम की मौलिक विचार- धाराएँ समान हैं ।

वास्तव में मुसलमानों में राजनीतिक मतभेद के आधार पर पहला महत्वपूर्ण बंटवारा हुआ । यह पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) की मृत्यु के बाद हुआ।

लेकिन सदियों से आधारित इन मतभेदों में धीरे-धीरे वृद्धि होती रही । और दोनों के विश्वासों और विचारों से ऐसे कर्म जुड़ गए जिन्हें उनको पूर्णतः दो भिन्न वर्गों में बाँट डाला ।

अब इन कर्मों में इनके अनुयायियों का विश्वास इतना गहरा हो चुका है कि वह उनको अपना आध्यात्मिक आधार समझने लगे हैं।

शिया-सुन्नी मतभेदों का आरम्भ


मतभेदों की शुरुआत इस बात पर हुई कि पैगम्बर (सल्ल0) की मृत्यु के बाद उनका आध्यात्मिक और राजनैतिक उत्तराधिकारी कौन होगा और किसको यह अधिकार पहुंचता है कि वह उस कर्तव्य के योग्य हो?

सुन्नी समुदाय के मुसलमान पैगंबर के बड़े सहाबियों के उस निर्णय से सहमत हैं कि पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) के बाद खलीफा उन साथियों में से चुना जाना चाहिए जो उस पद के लिए योग्य हों जैसा कि इतिहास से प्रमाणित है कि ऐसा ही किया गया।

और हज़रत अबू बक्र (रजि0) को पहला खलीफा बनाया गया । उनको अमीरुल मोमिनीन या पहला खलीफा का नाम दिया गया। सुन्नी की शब्दावली “मुहम्मद (सल्ल0) की सुन्नत अर्थात आदर्श का अनुसरण करने वाले” से ली गयी है।

दूसरी तरफ शिया मुसलमानों का कहना है कि नबियो और उनके उत्तराधिकारियों का चुनाव अल्लाह की ओर से होता है। इस चुनाव में स्वयं नबियों को भी अपना उत्तराधिकारी बनाने का अधिकार नहीं होता जैसा कि हज़रत आदम (अलै0) से अंतिम पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) तक हुआ है।

उनके विश्वास के अनुसार हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) के उत्तराधिकारी का चुनाव भी अल्लाह की ओर से हुआ और इसकी घोषणा पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) ने अपने जीवन में ही अन्तिम हज से वापसी के समय 18 जिलहिज्जा को गदीर के मैदान में यह कहते हुए कीः

लोगों वह समय निकट है जब मेरा बुलावा आ जाए और मैं अल्लाह का निमंत्रण स्वीकार करूं “क्या मैं ईमान वालों पर स्वयं उनसे अधिक अधिकार नहीं रखता?” लोगों ने कहा, जी हाँ, तो आप (सल्ल0) ने फ़रमाया, “मैं जिस-जिस का मौला था अब यह अली उसके मौला हैं।”

शिया लोग उत्तराधिकार की इस घोषणा पर कुरान की दो आयतों से भी तर्क देते हैं, उनके अनुसार 

“ऐ पैगम्बर (सल्ल0) जो आपके पालनहार की ओर से उतर चुका है, उसे पहुंचा दीजिए । यदि आपने ऐसा न किया तो मानो आपने पैगम्बरी का काम पूरा न किया । अल्लाह आपको लोगों की बुराइयों से सुरक्षित रखेगा ।” (सूरः माईदा, 67

इस आयत का सम्बन्ध उसी उत्तराधिकार से है जिसके अवतरित होने के बाद पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) ने हाजियों की सभा में ग़दीर के स्थान पर अली (रजि0) के उत्तराधिकार की घोषणा की, और जब घोषणा कर चुके तो फिर दूसरी आयत अवतरित हुई,

“आज मैंने आपके दीन अर्थात धर्म को पूरा कर दिया और आप पर अपने उपकार पूरे कर दिए और आपके लिए इस्लाम धर्म से संतुष्ट हुआ। (सूरः माईदा, 3)

उनके विश्वास के अनुसार मुहम्मद (सल्ल0) के 12 उत्तराधिकारी हैं जो अल्लाह की ओर से नियुक्त हुए हैं जिनमें पहले हज़रत अली (रजि0) है ।

इसलिए पूरे इस्लामी इतिहास के दौरान शिया भाईयों ने उस नेतृत्व को स्वीकार नहीं किया जो पैगंबर की मृत्यु के बाद तुरन्त अस्तित्व में आया ।

इसके बजाए वह उन्हीं उपरोक्त इमामों के अनुयायी रहे हैं जो उनके विचार के अनुसार अल्लाह तआला की ओर से नियुक्त किए गए थे।

“शिया” का अर्थ अरबी में अनुसरण करने वाला या समर्थक या ऐसा गिरोह (Group) है जो हजरत अली और उनके बाद उन्हीं की पीढ़ी के 11 इमामों को निरंतर पैगम्बर का उत्तराधिकारी मानता है।

दुनिया में शिया और सुन्नी आबादी

सुन्नी मुसलमान संसार की कुल मुस्लिम आबादी का लगभग 85% हैं जबकि शेष 15% शिया मुसलमान हैं । दुनिया के 56 मुस्लिम बहुल देशों में से 4 अर्थात ईरान, इराक, बहरीन और अजरबैजान शिया बहुल देश हैं लेकिन हिन्दुस्तान, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, यमन, सीरिया और लेबनान में भी शिया आबादी अच्छे अनुपात में पायी जाती है।

धार्मिक मामलों में मतभेद

इस्लाम के आरम्भिक युग में उभरने वाले इन मतभेदों के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आए दो समुदायों के बीच विश्वासों में भी काफी मतभेद पैदा होते चले गए और उसके आधार पर कई रीतियों की बुनियाद पड़ी जो अब स्थायी रूप से दोनों समुदायों की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन का अंग बन चुकी हैं ।

लेकिन इन सबके बावजूद मौलिक कलमा (मूल मंत्र) में समानता और एकरूपता पायी जाती है। बहुत से मुसलमान ऐसे भी हैं जो स्वयं को इन दोनों वर्गों से अलग रखकर मात्र मुसलमान कहलाना पसन्द करते हैं ।

धार्मिक नेतृत्व

शिया मुसलमानों का मानना है कि इमाम निर्दोष होता है और उसकी सत्ता पापमुक्त होती है और यह सीधे अल्लाह के द्वारा नियुक्त होते हैं । इसलिए शिया मुसलमान इमामों को पाप और गलतियों से ऊपर और निर्दोष मानते हैं और उन इमामों की मजारों के दर्शन के लिए जाते हैं ताकि उनकी सिफारिश उनको प्राप्त हो सके। 

इसके विपरीत सुन्नी मुसलमानों का मानना है कि इस्लाम में किसी विरासती नेतृत्व की कोई धारणा नहीं और आध्यात्मिक नेता और इमामों की व्यवस्था को इस्लाम ने हतोत्साहित करते हुए उसके लिए वैधता नहीं रहने दिया।

यही नहीं बल्कि मुसलमानों के नेता वह होंगे जो उसके लिए संघर्ष करेंगे और जिस पर मुसलमान भरोसा करेंगे और इन नेताओं को यद्यपि उनके सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक मामलों में निर्णय का अधिकार होगा लेकिन वह परलोक की सफलता के लिए किसी सिफारिश के हकदार नहीं समझे जायेंगे ।

मतभेद और तनाव

मुसलमानों के बीच शिया-सुन्नी तनाव और मतभेद हमेशा से रहा है और इस आधार पर दोनों संप्रदायों के राजनैतिक और सामाजिक चिन्तन में काफी अंतर रहा है।

कुछ देश जैसे भारत, पाकिस्तान, सऊदी अरब आदि में यह मतभेद अधिकतर उभरकर सामने आते रहे हैं और अलग-अलग राजनैतिक दृष्टिकोण का कारण रहे हैं ।

सऊदी अरब और सीरिया में शासक, मसलक के आधार पर अपने राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की योजना निर्धारित करते हैं जिसके कारण जनता में असंतोष और बेचैनी एक स्थायी समस्या रही है ।

अफगानिस्तान और इराक में जो पिछले दशक में अमेरिकी आक्रमण और अधीनता का शिकार रहे, इन दो समुदायों के बीच मतभेद भी देखने में आया है।

अधिकतर सामाजिक उपद्रव फैलाने वाली ताकतें शिया-सुन्नी मतभेदों को भी अपनी रणनीति के रूप में उभारती और प्रयोग करती रही हैं ।

भारत में यद्यपि इस मसलकी मतभेद की सतह बहुत नीचे की सतह में रही है लेकिन मुहर्रम के जुलूस के रास्ते पर मतभेद या हिंसा के रूप में देखी जाती रही है।

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