इस्लाम धर्म Polygyny (बहु-विवाह), विधवाओं और तलाकशुदा महिलाओं को पुनर्विवाह की अनुमति अनेक कारणों से देता है। ऐसे कारणों के सम्बन्ध में किसी को कल्पना अथवा परिकल्पना नहीं करनी होती ।
ये कारण वास्तविक हैं और इन्हें प्रतिदिन हर जगह देखा जा सकता है इनमें से कुछ कारणों का हम विश्लेषण करते हैं।
मृत्यु का जोखिम
इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार “सामान्यतः, किसी दी हुई आयु में मृत्यु का जोखिम पुरुषों की तुलना में महिलाओं के लिए कम होता है” Check source: Britannica
अनेक सामाजिक और राजनैतिक कारणों से विधवाओं और बेसहारा लोगों की संख्या एक विशेष सीमा तक बढ़ती रहेगी । इसके बड़े कारण युद्ध, दुर्घटनाएँ, प्राकृतिक आपदाएँ, गिरफ्तारियाँ हैं।
- प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) में लगभग 8 मिलियन सैनिक मारे गये। इनमें अधिकतर आम नागरिक व सैनिक पुरुष ही थे।
- द्वितीय विश्व युद्ध (1939-45) में लगभग 60 लाख लोग या तो मारे गये अथवा जीवन भर के लिए अपंग हो गये, इसमें से अधिकतर पुरुष थे।
- केवल इराक-ईरान युद्ध (1979-1988) में ही 82,000 ईरानी महिलाएँ और लगभग 1,00,000 ईराकी महिलाएँ विधवा हो गयीं, यह सब दस वर्ष के अन्तराल में हुआ।
- ऐसा कोई देश नहीं है जहां सड़कों पर रोजाना दुर्घटनाएँ न होती हों । वर्ष 2009 में, सरकारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में दुर्घटनाओं में कुल 3,60,000 लोग मारे गये। इसमें 77 प्रतिशत पुरुष व 23 प्रतिशत महिलाएँ थीं ।
- नीचे एक रिपोर्ट ग्राफ दिखाया गया जो (केवल दिल्ली में ही हुए) सड़क दुर्घटनाओं के विक्टिम्स को लिंग के आधार पर दर्शाता है, जहा साफ तोर पर पुरुष और महिलाओ में अंतर देखा जा सकता है।
- समाज में पुरुषों की कमी का एक और कारण कारावास है । वर्ष 2009 में US में 72,25,800 लोग दोषी ठहराकर जेल भेज दिये गये। इसमें से 97 प्रतिशत पुरुष थे, एक लम्बे कारावास की सजा काटने के लिए विवश हो गये । पुरुष कैदी महिलाएँ कैदियों से सामान्यत अधिक होते हैं।
कुछ दोषियों को लम्बी अवधि का कारावास जिसमें सजा-ए-मौत और आजीवन कारावास सम्मिलित है, मिलेगा। एक स्वस्थ समाज के लिए उपयुक्त और मानवीय समाधान आवश्यक है और यह केवल महिला समाज को उनके अधिकार उपलब्ध कराने से ही प्राप्त किया जा सकता है।
विवाह संबंधों के समापन का परामर्श
इस विशेष परिस्थिति में इस्लाम विवाह संबंधों के समापन का परामर्श देता है और कुछ अन्य कठोर सजाओं में तीन वर्ष से अधिक लम्बे कारावास के कारण विवाह संबंध टूट जाते हैं ।
इस प्रकार प्रभावित महिलाओं को अपना वैध जीवन साथी चुनने की अनुमति दी जायेगी । इस प्रकार बहुविवाह इन महिलाओं को बचा सकता है और इस गंभीर समस्या का समाधान कर सकता है।
अब यदि कोई समाज इस संवर्ग में आता है और यदि वह बहुविवाह पर रोक लगाता है और वैध विवाहों को मात्र एक पत्नी तक सीमित कर देता है तो विधवा और तलाकशुदा महिलाएं क्या करेंगी ?
वह प्राकृतिक रूप से ऐच्छिक जीवनसाथी कहाँ से पायेंगी । वह सहानुभूति, समझ, सहयोग और सुरक्षा कहाँ से और कैसे प्राप्त करेंगी ?
इन समस्याओं के प्रभाव साधारण रूप से शारीरिक ही नहीं है बल्कि वह नैतिक, भावनात्मक, सामाजिक, भावात्मक और प्राकृतिक भी हैं ।
महिलाओं की समस्याएं
प्रत्येक सामान्य महिला चाहे वह व्यापारी हो चाहे विदेश सेवा में हो या गुप्तचर विभाग में हो । उसे एक घर और अपने एक परिवार की चाहत होती है । उसे किसी ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता होती है जो उसकी देखरेख करे ।
यहाँ तक कि यदि हम इस समस्या पर पूर्णतः शारीरिक दृष्टिकोण से देखें तब भी इसके प्रभाव गम्भीर दिखायी देंगे और हम उनकी अनदेखी नहीं कर सकते अन्यथा मनोवैज्ञानिक हीन भावनाएँ, मनोबल का टूटना, सामाजिक विक्षोभ और मानसिक अस्थिरता उत्पन्न होगी ।
इन प्राकृतिक इच्छाओं और भावनात्मक उमंगों को समझना चाहिए । इन्हें किसी से सम्बन्धित होने, देखरेख करने, अपनी देखरेख कराने जैसी इच्छाओं को किसी न किसी तरह संतुष्ट करना होगा ।
ऐसी परिस्थितियों में महिलाएँ साधारणतः अपनी प्रकृति को बदल नहीं पातीं अथवा वह दैवीय जीवन नहीं अपना पातीं । वह महसूस करती हैं कि उन्हें भी जीवन का आनन्द लेने का सम्पूर्ण अधिकार और अपना हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार है ।
यदि वह इसे वैध और शालीनता पूर्वक नहीं पा सकती तो वह अन्य स्रोतों से प्राप्त करने में असफल नहीं होतीं, चाहें वह प्रयास जोखिम भरे हों अथवा क्षणिक हों ।
बहुत कम ऐसी महिलाएँ हैं जो स्थायी रूप से पुरुषों के स्थायी और सुनिश्चित साथ के बिना कुछ कर सकती हैं।
ऐसी परिस्थिति में कोई भी महिला एक मनोवैज्ञानिक रोगी हो जायेगी अथवा विद्रोही और नैतिकता नष्ट करने वाली हो जायेगी ।
अतीत में भी जब किसी महिला का पति मर जाता था तो विरासत की संपत्ति की तरह या तो उसको पति के भाई अथवा सौतेले बेटे के हवाले कर दिया जाता था जो उसके साथ क्रूर व्यवहार करता था ।
विधवा – तलाकशुदा महिलाएँ और इस्लाम
भारतीय समाज में एक रीति यह थी कि विधवा को उसके पति की चिता पर जला दिया जाता था । यदि उसे जीवित रहना होता तो वह सांसारिक आकर्षणों से दूर रहती और पूरे जीवन भर विलाप करना पड़ता ।
परन्तु इस्लाम ने विधवा महिलाओं अथवा तलाकशुदा महिलाओं के शोक को चार महीने और दस दिन तक सीमित कर दिया जिसे इद्दत की अवधि कहा जाता है।
इसके बाद उसे प्रत्येक प्रकार के सौन्दर्य अपनाने की अनुमति दी जाती है और अब वह पुनः विवाह कर सकती है और कुरान इसे इसकी अनुमति देता है।
उन महिलाओं से विवाह करो जो विवाह बन्धन से नहीं जुड़ी हैं। (कुरान , 24:32)