इस्लाम में पैगम्बरों की मूर्तियां और चित्र क्यों नहीं होते है?


विभिन्न धर्मों के अधिकतर अनुयायी अपने धर्मस्थलों और अपने घर के पवित्र कोनों में अपने देवताओं और पवित्र हस्तियों के चित्र या मूर्ति सजाते हैं ।

मस्जिदों और मुसलमानों के घरों में अल्लाह और पैगंबर के चित्र नहीं होते । लोगों के मन में यह प्रश्न उत्पन्न करता है कि इस्लाम क्यों मूर्तियों या चित्रों की अनुमति नहीं देता ।

पैगम्बर मुहम्मद (आप पर अल्लाह की दया और कृपा हो) मानवता के मार्गदर्शन के लिए अल्लाह की ओर से भेजे गए अंतिम पैगम्बर थे । आपने इस्लाम धर्म का उपदेश तीन मौलिक विश्वासों के आधार पर दिया:

  • एक मात्र सर्वोच्च स्वामी पर विश्वास
  • पैगम्बरी (अल्लाह द्वारा भेजे गए आदम से लेकर अपने आप तक के सभी पैगम्बरों पर विश्वास)
  • कयामत में फैसले के दिन उत्तरदायित्व पर विश्वास

आपने लोगों के समक्ष यह स्पष्ट कर दिया था कि आप अन्य लोगों की तरह एक मनुष्य के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं और अपने लिए, किसी दैवीय व्यवस्था के तत्व प्रदान करने के विरुद्ध सचेत भी किया ।

अतः इस्लाम, अल्लाह और उसके पैगम्बर के बीच भेद करने में विशेष ध्यान देता है । पैगम्बरों को कुछ धर्मों में अवतार का जो सिद्धांत है, उससे मिलाना नहीं चाहिए ।

पैगम्बर और अवतार

पैगम्बर और अवतार दोनों अलग-अलग हैं । इसी तरह अल्लाह शाश्वत और सदैव रहने वाला है जबकि पैगम्बर अन्य मनुष्यों की तरह नाशवान होते हैं और लोगों के मार्गदर्शन के लिए आसमानी संदेश के वाहक होते हैं ।

इसीलिए पैगम्बर मुहम्मद (आप पर अल्लाह की दया और कृपा हो) ने अपने आप को अल्लाह के स्थान तक उठाने से मना किया ।

कुरान ने घोषणा की कि पैगम्बर की मृत्यु हो जाएगी और अल्लाह सदैव जीवित रहेगा । अल्लाह कभी सोता नहीं और उसे कभी ऊँघ भी नहीं आती ।

अतः इस्लाम ने अल्लाह को हर तरह की इबादत और उपासना का एकमात्र केंद्र बना दिया । दैवीय धारणा में किसी ऐसी चीज़ को स्वीकार नहीं किया अथवा उसकी अनुमति नहीं दी गयी जो, आसमानी उपास्य की धारणा को कमज़ोर करती हो ।

इसी भावना को ध्यान में रखते हुए इस्लाम में उपास्य और पैगम्बर के चित्र और मूर्तियां बनाने को सख्ती से रोका गया। इससे पहले ऐसा हो चुका था कि मूर्तियों ने समाज को मूर्ति-पूजा की ओर धकेल दिया था और वास्तविक उपास्य को भुला दिया गया था ।

जिस काबा को पैगम्बर इब्राहीम (अलै0) ने लगभग 4000 वर्ष पहले अल्लाह की उपासना के लिए बनाया था, इसी मूर्ति-पूजा के कारण वह पतन का शिकार हुआ था।

यह विभिन्न देवताओं का एक पंथ बन गया था, जिसमें प्रत्येक देवता को एक विशेष काम दे दिया गया था। इस्लाम ने अल्लाह के दैवत्व को बहाल किया और मूर्ति-पूजा को पूर्णतः प्रतिबंधित कर दिया ।

इसी प्रकार पैगम्बर की मूर्ति और चित्र बनाने को भी प्रतिबंधित किया गया। मानव प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुए यह डर था कि मनुष्य पवित्र व्यक्तियों को उपास्य के स्थान पर पहुँचा देता है।

जिन लोगों ने पैगम्बर को देखा था और उनसे मिले थे उनके अन्दर जल्द ही उनकी मूर्ति बनाने की लालसा पैदा होती, वह उनकी उपासना करना शुरू कर देते और अल्लाह को छोड़ देते ।

पूरी दुनिया में मस्जिदों के अन्दर तस्वीरें और मूर्तियां नहीं पायी जाती । ये पूर्णतया साफ और सुथरे स्थान हैं जहाँ श्रद्धा एकमात्र सर्वोच्च अल्लाह के लिए होती है और उसी की ओर ध्यान केंद्रित करके नमाजें पढ़ी जाती हैं और दुआएँ की जाती हैं और सभी इच्छाएं और उमंगे उसी से मांगी जाती हैं ।

पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) भी देवता के रूप में बीच में नहीं आते । आप अल्लाह से अलग एक अस्तित्व दिखाई देते हैं । उनका स्थान मार्गदर्शक, आध्यात्मिक नेता, एक आदर्श मनुष्य एक सुधारक और शुभ सूचना देने वाले और चेतावनी देने वाले का है ।

वह न तो अल्लाह के साझीदार हैं और न ही उनके अवतार हैं । उनकी मूर्ति नहीं बनायी जा सकती और न ही उनकी छवि को प्रतिमा, कलाकृति और चित्र अथवा तस्वीर में बदला जा सकता है। 

इस्लाम, पैगम्बर और कार्टून

चित्र के बारे में इस्लाम के इसी दृष्टिकोण के कारण अल्लाह या पैगम्बर की मूर्ति के रूप में प्रतिनिधित्व करने का प्रश्न ही नहीं उठता और इनका कार्टून बनाना और आकृति बनाना उनके प्रति अनादर और द्वेष का तत्व रखता है।

अक्सर पैगम्बर के वीडियो चित्र भी विरोध प्रदर्शन की आँधी उठा देते हैं। पिछले दिनों उस समय बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए जब पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल0) को कार्टून के रूप में दिखाने के लिए डच कार्टूनिस्ट ने कार्टून बनाया और इसे डच अखबार ज़ीलैण्ड पोस्टेन ने प्रकाशित किया ।


मुसलमान इन कार्यों को जानबूझकर उकसाने वाले कार्य के रूप में देखते हैं और मुसलमान चाहते हैं कि इन कृत्यों को उसी प्रकार ब्लासफेमी कानून के अन्तर्गत लाया जाए, जिस प्रकार पश्चिमी देशों में पवित्र हस्तियों, जैसे ईसा मसीह के प्रति अनादर प्रदर्शित करना प्रतिबन्धित है ।

पश्चिमी देशों की दोहरी नीति

पश्चिमी देशों ने इस तरह के मामलों में दोहरी नीति अपना रखी है। पश्चिमी देशों में ऐसे अनेक ड्रामे प्रतिबन्धित हैं जिनमें ईसा मसीह का मजाक उड़ाया गया है ।

इसे विचार स्वतंत्रता पर किसी प्रतिबंध के रूप में नहीं देखा जाता । पवित्र हस्तियों और धर्म के पवित्र प्रतीकों का सम्मान किया जाना चाहिए।

विचार स्वतंत्रता का यह अर्थ नहीं है और न होना चाहिए कि किसी का अपमान करने की स्वतंत्रता हो । वास्तव में विचार स्वतंत्रता अश्लीलता, मर्यादाहीन, मिथ्या रोपण और विद्रोह का अधिकार नहीं देती ।

सभी देशों ने व्यक्ति की प्रतिष्ठा और निजीत्व के सम्मान के लिए कानून बनाए हैं। किसी डच कार्टूनिस्ट को पवित्र पैगम्बर के अपमानजनक कार्टून बनाने की अनुमति कैसे दी जा सकती है?

मुस्लिम जगत में कोई भी व्यक्ति किसी भी पैगम्बर की तस्वीर नहीं बना सकता। हास्यास्पद तस्वीर बनाना तो दूर की बात है।

इस्लाम हज़रत मरियम, जो ईसा मसीह की पवित्र माँ थी, उनको अत्यन्त सम्मान प्रदान करता है हालांकि वह बिना बाप के पैदा हुए थे।

पवित्र कुरान अपने अनुयायियों को अन्य धर्मों के उपास्यों, देवताओं और धर्म के प्रति अपमान प्रकट करने, बुरा-भला कहने और निंदा करने से रोकता है क्योंकि इसके बदले में वह भी अल्लाह को बुरा-भला कह सकते हैं और परिस्थितियाँ पहले से विकट हो सकती हैं ।

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