इस्लाम के पहले शहीद-सुमय्या (रज़ि0) व यासिर (रज़ि0) - The First Martyrs In Islam

यमनी मूल के युवा अम्मार (रज़ि0) (Ammar ibn Yasir) इस्लाम के सन्देश से वहुत अल्पायु में जुड़ गये थे और उन्होंने पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल0) से अल-अरकम के घर में प्रशिक्षण प्राप्त किया।

उनके पिता यासिर (रज़ि0) (Yasir ibn Amir) और उसके बाद उनकी माँ सुमय्या (रज़ि0) (Sumayyah bint Khabbat) ने उनके वाद शीघ्र ही इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया और निरन्तर इस्लामी शिक्षाएँ प्राप्त करते रहे।

अबू जहल ने अपनी प्रतिशोधपूर्ण घृणा के निशाने के रूप में इनको चुना, वह उन्हे मारने-पीटने लगा, उन्हें धूप में बाँध देता, उन्हें यातना देता ।


उन यातनाओं के बावजूद यह सिलसिला हफ्तों चला, सुमय्या (रज़ि0) व यासिर (रज़ि0) ने इस धर्म का तिरस्कार करने से इन्कार कर दिया। सुमय्या (रज़ि0) ने अबू जहल को उसके कायरतापूर्ण व्यवहार पर डॉटा भी।

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क्रोधित होकर अबू जहल ने उनकी चाकू घोंपकर हत्या कर दी । फिर वह क्रोधित होकर उनके पति की तरफ मुड़ा और पीट-पीट कर उनकी भी हत्या कर दी । सुमय्या (रज़ि0) व यासिर (रज़ि0) इस्लाम के पहले शहीद थे ।

उन्हें अल्लाह का इन्कार करने से मना करने, उसके एकत्व और कुरआन के अवतरण की सच्चाइ का इन्कार न करने के लिए उत्पीड़न व प्रताड़ना झेलनी पड़ी ।

मुसलमानाे के लिए परिस्थितियाँ अधिक से अधिक कष्टदायक होने लगी। विशेष रूप से उनमें से अत्यधिक असहाय लोगों की जिनकी सामाजिक इस्थिति और क़बायली सम्बन्ध कमज़ोर होते थे।

पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल0) ​की रक्षा का दायित्व उनके चाचा अबू तालिब और हमज़ा को दिया गया था । परन्तु यह सरक्षा मुसलमानो के आध्यात्मिक समुदाय के लिए नहीं थी, और उनके लिए अपमान, तिरस्कार और दु्य॑वहार एक नियम बन गया था।

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