सूरह तगाबून (64) हिंदी में | At-Taghabun in Hindi

सूरह तगाबून “At-Taghabun”

कहाँ नाज़िल हुई:मदीना
आयतें:18 verses
पारा:28

नाम रखने का कारण

आयत 9 के वाक्यांश “वह दिन होगा एक दूसरे के मुकाबले में लोगों की हार जीत (तग़ाबुन) का” से उद्धृत है अर्थात् वह सूरह जिसमें ‘तगाबुन’ शब्द आया है।

अवतरणकाल

“मुकातिल और कल्बी कहते हैं कि इसका कुछ अंश मक्की है और कुछ मदनी। किन्तु अधिकतर टीकाकार पूरी सूरह को मदनी ठहराते हैं।

किन्तु वार्ता की विषय-वस्तु पर विचार करने पर अनुमान होता है कि सम्भवतः यह मदीना तैयबा के आरम्भिक कालखंड में अवतरित हुई होगी। यही कारण है कि इसमें कुछ रंग मक्की सूरतों का और कुछ मदनी सूरतों का पाया जाता है।

विषय और वार्ता

इस सूरह का विषय ईमान और आज्ञापालन का आमंत्रण और सदाचार की शिक्षा है। वार्ता का क्रम यह है कि पहली चार आयतों में सम्बोधन सभी मनुष्यों से है, फिर आयत 5-10 तक उन लोगों को सम्बोधित किया गया है जो कुरआन के आमंत्रण को स्वीकार नहीं करते और इसके बाद आयत 11 से अन्त तक की आयतों की वार्ता का रुद्ध उन लोगों की ओर है जो इस आमंत्रण को स्वीकार करते हैं।

समस्त मानवों को सम्बोधित करके कुछ थोड़े से वाक्यों में उन्हें चार मौलिक सच्चाइयों से अवगत कराया गया है:

एक यह कि इस जगत् का स्रष्टा, मालिक और शासक एक ऐसा सर्वशक्तिमान ईश्वर है जिसके पूर्ण और दोषमुक्त होने की गवाही इस ब्रह्माण्ड की हर चीज़ दे रही है।

दूसरे यह कि यह ब्रह्माण्ड निरुद्देश्य और तत्वदर्शिता से रिक्त नहीं है, बल्कि इसके स्रष्टा ने सर्वथा यथार्थतः और औचित्य के आधार पर इसकी रचना की है। यहाँ इस भ्रम में न रहो कि यह व्यर्थ तमाशा है, जो निरर्थक शुरू और निरर्थक ही समाप्त हो जाएगा।

तीसरे यह कि तुम्हें जिस सुन्दरतम रूप के साथ ईश्वर ने उत्पन्न किया है और फिर जिस प्रकार यह तुम पर छोड़ दिया है कि तुम मानो या न मानो, यह कोई ऐसा कार्य नहीं है जो फल रहित और निरर्थक हो। वास्तव में ईश्वर यह देख रहा है कि तुम अपनी स्वतंत्रता को किस तरह प्रयोग में लाते हो।

चौथे यह कि तुम जाना है, जिस पर मन में छिपे हुए विचार तक प्रकट हैं। इसके बाद वार्ता का रुख दायित्व मुक्त और अनुत्तरदायी नहीं हो।

बल्कि तुम्हें अपने स्रष्टा की ओर पलट कर उन लोगों की ओर मुड़ता है जिन्होंने इन्कार (कुफ़) की राह अपनाई है और उन्हें विगत विनष्ट जातियों के इतिहास का ध्यान दिला कर बताया जाता है कि उस के मौलिक कारण केवल दो थे:

एक यह कि उसने जिन रसूलों को उनके मार्गदर्शन के लिए भेजा था, उनकी बात मानने से उन्होंने इन्कार किया।

दूसरे यह कि उन्होंने परलोक की धारणा को भी रद्द कर दिया और अपनी दंभपूर्ण भावना के अन्तर्गत यह समझ लिया कि जो कुछ है बस यही संसारिक जीवन है।

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