सूरह शुअरा (26) हिंदी में | Ash-Shu'ara in Hindi


कहाँ नाज़िल हुई:मक्का
आयतें:227 verses
पारा:19

नाम रखने का कारण

आयत 224 “रहे कवि (शुअरा), तो उनके पीछे बहके हुए लोग चला करते हैं,” से उद्धृत है।

अवतरणकाल

विषय-वस्तु और वर्णन-शैली से महसूस होता है और उल्लेखों से भी इसकी पुष्टि होती है कि इस सूरह का अवरतणकाल मक्का का मध्यकाल है।

विषय और वार्ताएँ

अभिभाषण की पृष्ठभूमि यह है कि मक्का के काफिर नबी (सल्ल.) के प्रचार और उपदेश का मुकाबला निरन्तर विरोध और इन्कार से कर रहे थे और इसके लिए तरह-तरह के बहाने गढ़े चले जाते थे।

नबी (सल्ल.) उन लोगों को उचित प्रमाणों के साथ उनकी धारणाओं की असत्यता और एकेश्वरवाद और परलोकवाद की सत्यता को समझाने की कोशिश करते-करते थके जाते थे, किन्तु वे हटधर्मी के नित नए रूप अपनाते हुए न थकते थे। यही चीज़ नवी (सल्ल.) के लिए आत्म विदारक बनी हुई थी और इस दुख में आपकी जान घुली जाती थी।

इन परिस्थितियों में यह सूरह अवतरित हुई। वार्ता का आरम्भ इस प्रकार होता है कि तुम इनके पीछे अपनी जान क्यों घुलाते हो? इनके ईमान न लाने का कारण यह नहीं है कि इन्होंने कोई निशानी नहीं देखी है, बल्कि इसका कारण यह है कि ये हठधर्मी हैं, समझाने से नहीं मानना चाहते। 

इस भूमिका के पश्चात् आयत 191 तक जो विषय निरन्तर वर्णित हुआ है वह यह है कि सत्य के जिज्ञासु लोगों के लिए तो अल्लाह की धरती पर हरेक ओर निशानियाँ ही निशानियाँ फैली हुई हैं, जिन्हें देख कर वे सत्य को पहचान सकते हैं। लेकिन हठधर्मी लोग कभी किसी चीज़ को देखकर भी ईमान नहीं लाए है।

यहाँ तक कि ईश्वरीय प्रकोप ने आकर उन्हें ग्रस लिया है। इसी सम्पर्क से इतिहास की सात जातियों के वृतान्त प्रस्तुत किए हैं, जिन्होंने उसी हठधर्मी से काम लिया या जिससे मक्का के काफिर काम ले रहे थे। और इस ऐतिहासिक वर्णन के अन्तर्गत कुछ बातें मन में बिठाई गई हैं।

प्रथम यह कि निशानियाँ दो प्रकार की हैं। एक प्रकार की निशानियाँ वे हैं जो ईश्वर की धरती पर हर तरफ फैली हुई हैं, जिन्हें देखकर हर बुद्धिमान व्यक्ति जाँच पड़ताल कर सकता है कि नबी जिस चीज़ की तरफ बुला रहा है वह सत्य है या नहीं।

दूसरे प्रकार की निशानियाँ वे हैं जो (तबाह कर दी जाने वाली कौमों) ने देखीं। अब यह फैसला करना स्वयं काफिरों का अपना काम है कि ये किस प्रकार की निशानी देखना चाहते हैं।

द्वितीय यह कि हर युग में काफ़िरों की मनोवृत्ति एक-सी रही है। उनके तर्क एक ही प्रकार थे। उनके आक्षेप एक-से थे और अन्ततः उनका परिणाम भी एक-सा ही रहा।

इसके विपरीत हर युग में नबियों की शिक्षा एक थी। अपने विरोधियों के मुक़बाले में उनके प्रमाण और तर्क का ढंग एक था और उन सबके साथ अल्लाह की दया का मामला भी एक था।

ये दोनों दृष्टान्त इतिहास में मौजूद हैं। काफिर (अधर्मी) स्वयं देख सकते हैं कि उनका अपना चित्र किस प्रकार के नमूने से मिलता है।

तीसरी बात जो बार-बार दोहराई गई है। कि अल्लाह प्रभावशाली, सामर्थ्यवान और शक्तिमान भी है दयावान् भी। अब यह बात लोगों को स्वयं ही निश्चित करनी चाहिए कि वे अपने आपको उसकी दया का पात्र बनाते हैं या प्रकोप का।

आयत 192 से सूरह के अन्त तक इस वार्ता को समेटते हुए कहा गया है कि तुम लोग निशानियाँ ही देखना चाहते हो, तो आखिर वे भयावह निशानियाँ देखने पर क्यों आग्रह करते हो जो विनष्ट होने वाली जातियों ने देखी हैं।

इस कुरआन को देखो जो तुम्हारी अपनी भाषा में है। मुहम्मद (सल्ल.) को देखो। उनके साथियों को देखो। क्या यह वाणी किसी शैतान या जिन्न की वाणी हो सकती है?

क्या मुहम्मद (सल्ल.) और उनके साथी वैसे ही दिखाई देते हैं जैसे कवि और उनके सहधर्मी हुआ करते है? (यदि नहीं, जैसा कि स्वयं तुम्हारे दिल गवाही दे रहे होंगे) तो फिर यह भी जान लो कि तुम ज़ुल्म कर रहे हो और ज़ालिमों का-सा परिणाम देखकर रहोगे।

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