सूरह क़सस (28) हिंदी में | Al-Qasas in Hindi


कहाँ नाज़िल हुई:मक्का
आयतें:88 verses
पारा:20

नाम रखने का कारण

आयत 25 के इस वाक्यांश से उद्धृत है: “और अपना सारा वृत्तांत (अल कसस) उसे सुनाया।” अर्थात् वह सूरह जिसमें ‘अल-क़सस’ का शब्द आया है।

अवतरणकाल

सूरह 27 (नम्ल) के परिचयात्मक लेख में हज़रत इब्ने अब्बास (रज़ि.) और हज़रत जाबिर-बिन-जैद (रजि.) का यह कथन हम उद्धृत कर चुके हैं कि सूरह 26 (अश्शुअरा), सूरह 27 (नम्ल) और सूरह कसस क्रमशः अवतरित हुई हैं।

भाषा, वर्णन- शैली और विषय वस्तुओं से भी यही महसूस होता है कि इन तीनों सूरतों का अवतरणकाल लगभग एक ही है। और इस दृष्टि से भी इन तीनों में निकटवर्ती सम्बन्ध है कि हज़रत मूसा (अलै.) के वृत्तान्त के विभिन्न अंश जो इनमें वर्णित हुए हैं वे परस्पर मिलकर एक पूरा किस्सा बन जाते हैं।

विषय और वार्ताएँ

इसका विषय उन सन्देहों और आक्षेपों का निवारण करना है जो नबी (सल्ल.) की पैग़म्बरी पर किए जा रहे थे, और उन आपत्तियों और विवशताओं को रद्द करना है जो आप पर ईमान न लाने के लिए प्रस्तुत की जाती थीं।

इस उद्देश्य के लिए सबसे पहले हज़रत मूसा (अलै.) का किस्सा बयान किया गया है, जो अवतरण काल की परिस्थितियों से मिलकर स्वतः कुछ तथ्य सुनने वालों के मन में बिठा देता है :

प्रथम यह कि अल्लाह जो कुछ करना चाहता है उसके लिए वह ग़ैर महसूस ढंग से संसाधन जुटा देता है। जिस बच्चे के हाथों अन्ततः फिरऔन का तख़्ता उलटना था, उसे अल्लाह ने स्वयं फ़िरऔन ही के घर में उसके अपने हाथों पालन-पोषण करा दिया।

दूसरे यह कि पैग़म्बरी किसी व्यक्ति को किसी बड़े समारोह और धरती और आकाश से किसी भारी उद्घोषणा के साथ नहीं दी जाती। तुमको आश्चर्य है कि मुहम्मद (सल्ल.) को चुपके से यह पैग़म्बरी कहाँ से मिल गई और बैठे बिठाए ये नबी कैसे बन गए।

किन्तु जिन मूसा (अलै.) का तुम हवाला देते हो कि “क्यों न दिया गया इसको वही कुछ जो मूसा को दिया गया था” (आयत (48) उन्हें भी इसी तरह राह चलते पैग़म्बरी मिल गई थी।

तीसरे यह कि जिस बन्दे से ईश्वर कोई काम लेना चाहता है, देखने में कोई ताकृत उसके पास नहीं होती, किन्तु बड़ी-बड़ी सेनाओं और साज-सज्जावाले अन्ततः उसके मुकाबले में घरे के घरे रह जाते हैं।

जो तुलनात्मक अन्तर तुम अपने और मुहम्मद (सल्ल.) के मध्य पा रहे हो उससे बहुत अधिक अंतर मूसा (अलै) और फिरऔन की शक्ति के मध्य था। किन्तु देख लो कि आख़िर कौन जीता और कौन हारा।

चौथे यह कि तुम लोग बार-बार मूसा (अलै.) का हवाला देते हो कि “मुहम्मद को वह कुछ क्यों न दिया गया, जो मूसा को दिया गया।” अर्थात् (चमत्कारी) लाठी और चमकता हाथ और दूसरे खुले खुले चमत्कार।

किन्तु तुम्हें कुछ मालूम भी है कि जिन लोगों को वे चमत्कार दिखाए गए थे। वे उन्हें देखकर भी ईमान न लाए, क्योंकि वे सत्य के विरुद्ध हठधर्मी और शत्रुता में पड़े थे। इसी रोग में आज तुम ग्रस्त हो।

क्या तुम उसी तरह के चमत्कार देखकर ईमान हुए ले आओगे? फिर तुम्हें कुछ यह भी ख़बर है कि जिन लोगों ने उन चमत्कारों को देखकर सत्य का इन्कार किया था उनका परिणाम क्या हुआ?

अन्ततः अल्लाह ने उन्हें तबाह करके छोड़ा । अब क्या तुम भी हठधर्मी के साथ चमत्कार माँगकर अपने दुर्भाग्य को बुलाना चाहते हो?

ये वे बातें हैं जो किसी स्पष्टीकरण के बिना आप से आप हर उस व्यक्ति के मन में उतर जाती थीं जो मक्का के अधर्मपूर्ण वातावरण में इस किस्से को सुनता था, क्योंकि उस समय मुहम्मद (सल्ल.) और मक्का के काफिरों के मध्य वैसा ही एक संघर्ष चल रहा था, जैसा इससे पहले फ़िरऔन और हज़रत मूसा (अलै.) के मध्य चल चुका था।

इसके पश्चात् आयत 43 से मूल विषय पर प्रत्यक्ष रूप से वार्ता का आरम्भ होता है। पहले इस बात को मुहम्मद (सल्ल.) की पैग़म्बरी का प्रमाण ठहराया गया है कि आप बेपढ़े-लिखे होने के बावजूद दो हज़ार वर्ष पूर्व घटित एक ऐतिहासिक घटना को इस विस्तार के साथ हू बहू सुना रहे हैं।

फिर आपके नबी बनाए जाने को उन लोगों के पक्ष में अल्लाह की एक दयालुता ठहराया जाता है कि वे बेसुध पड़े हुए थे और अल्लाह ने उनके मार्गदर्शन के लिए ये व्यवस्था की। फिर उनके इस आक्षेप का उत्तर दिया जाता है, “यह नबी यह चमत्कार क्यों न लाया, जो इससे पहले मूसा (अलै.) लाए थे।”

उनसे कहा जाता है कि मूसा (अलै.) ही को तुमने कब माना है कि अब इस नबी से चमत्कार की माँग करते हो? अन्त में मक्का के काफ़िरों की उस मूल आपत्ति को लिया जाता है जो नबी (सल्ल.) की बात न मानने के लिए वे प्रस्तुत करते थे।

उनका कहना यह था कि यदि हम अरब वालो के बहुदेववादी धर्म को छोड़कर इस नए एकेश्वरवादी धर्म को स्वीकार कर लें तो सहसा इस देश से हमारी धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक चौधराहट समाप्त हो जाएगी। यह चूँकि कुरैश के सरदारों का सत्य से बैर रखने का वास्तविक प्रेरक था, इसलिए अल्लाह ने इसप सूरह के अन्त तक विस्तृत वार्तालाप किया है।

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