कहाँ नाज़िल हुई: | मदीना |
आयतें: | 31 verses |
पारा: | 29 |
नाम रखने का कारण
इस सूरह का नाम ‘अद्-दहूर’ (काल) भी है और “अल्-इन्सान” (इन्सान) भी। दोनों नाम पहली ही आयत “क्या इन्सान पर अनन्त काल का एक ऐसा समय भी बीता है” से उद्धृत है।
अवतरणकाल
अधिकतर टीकाकार इसको मक्की ठहराते हैं, किन्तु कुछ अन्य टीकाकारों ने पूरी सूरह को मदनी कहा है और कुछ लोगों का कथन यह है कि सूरह है तो मक्की, किन्तु आयत 8 से 10 तक मदीना में अवतरित हुई हैं।
जहाँ तक कि सूरह की वार्ताओं और वर्णन-शैली का सम्बन्ध है, मदनी सूरतों की वार्ताओं और वर्णन-शैली से अधिक भिन्न है, बल्कि उस पर विचार करने से साफ महसूस होता है कि यह न केवल मक्की है, बल्कि मक्का मुअज़्ज़मा के भी उस काल खण्ड में अवतरित हुई है।
विषय और वार्ता
इस सूरह का विषय मनुष्य को संसार में उसकी वास्तविक हैसियत से अवगत कराना है और यह बताना है कि यदि वह अपनी इस हैसियत को ठीक-ठीक समझ कर कृतज्ञता की नीति ग्रहण करे तो उसका परिणाम क्या होगा और कुछ (अकृतज्ञता) के मार्ग पर चले तो उसे किस परिणाम का सामना करना होगा।
इसमें सबसे पहले मनुष्य को याद दिलाया गया है कि एक समय ऐसा था, जब वह कुछ न था। फिर एक मिश्रित वीर्य से उसका हीन-सा प्रारम्भ किया गया, जो आगे चल कर इस धरती पर सर्वश्रेष्ठ प्राणी बना।
इसके बाद मनुष्य को सावधान किया गया कि हम (तुझे) संसार में रख कर तेरी परीक्षा लेना चाहते हैं। इसलिए दूसरे सृष्ट जीवों के विपरीत तुझे विवेकवान और श्रवण शक्ति वाला बनाया गया और तेरे सामने कृतज्ञता और अकृतज्ञता के दोनों मार्ग खोल कर रख दिए गए, ताकि यहाँ कार्य करने का जो समय तुझे दिया गया है उसमें तू दिखा दे कि इस परीक्षा में तू कृतज्ञ बन्दा बन कर निकला या अकृतज्ञ (काफिर) बन्दा बन कर।
फिर केवल एक आयत में दो-टूक तरीके से बता दिया गया है कि जो इस परीक्षा में अकृतज्ञ (काफिर) बन कर निकलेंगे उन्हें परलोक में किस परिणाम का सामना करना पड़ेगा।
इसके बाद आयत 5 से 22 तक निरंतर उन सुख-सामग्रियों का विस्तृत वर्णन है जिनसे ये लोग अपने रब के यहाँ अनुग्रहीत होंगे, जिन्होंने यहाँ बंदगी का हक अदा किया है।
इन आयतों में केवल उनके उत्तम प्रतिदानों को बताने पर बस नहीं किया गया है, बल्कि संक्षेप में यह भी बता दिया गया है कि उनके वे कौन-कौन से कर्म है जिनके कारण वे इस प्रतिदान के अधिकारी होंगे। इसके बाद आयत 23 से सूत के अन्त तक अल्लाह के (सल्ल0) को सम्बोधित कर के तीन बातें कही गई हैं:
एक यह कि वास्तव में यह हम ही हैं जो इस कुरआन को थोड़ा-थोड़ा कर दे उन पर अवतरित कर रहे हैं, और इसका उद्देश्य नबी (सल्ल0) को नहीं बल्कि काफिरों को सचेत करना है कि यह कुरआन मुहम्मद (सल्ल0) स्वयं अपने मन से नहीं गढ़ रहे हैं, बल्कि इसके अवतरित करने वाले “हम” हैं और हमारी तत्त्वदर्शिता ही को यह अपेक्षित है कि इसे एक बार में नहीं, बल्कि थोड़ा-थोड़ा कर के अवतरित करें।
दूसरी बात यह कि धैर्य के साथ पैगम्बरी के अपने कर्तव्य को पूरा करते चले जाओ और कभी इन दुष्कर्मी और सत्य को नकारने वाले लोगों में से किसी के भी दबाव में न आओ।
तीसरी बात यह है कि रात-दिन अल्लाह को याद करो, नमाज़ पढ़ो औरतें अल्लाह की उपासना में गुज़ारो, क्योंकि यही वह चीज़ है जिससे कुफ़ (अधम) के अतिक्रमण के मुकाबले में अल्लाह की ओर बुलाने वालों को सुदृढ़ता प्राप्त होती है।
फिर एक वाक्य में काफिरों की गलत नीति का वास्तविक कारण बताया गया है कि दे परलोक को भूल कर संसार पर मोहित हो गए हैं, और दूसरे वाक्य में उनको सचेत किया गया है कि तुम स्वयं नहीं बन गए हो, हम ने तुम्हें बनाया है और यह बात हर समय हमारे सामर्थ्य में है कि जो कुछ हम तुम्हारे साथ करना चाहें, कर सकते हैं।
अन्त में वार्ता इस पर समाप्त की गई है कि यह एक उपदेश-वचन है। अब जिसका जी चाहे इसे स्वीकार कर के अपने प्रभु का मार्ग अपना ले।
किन्तु दुनिया में मनुष्य की चाहत पूरी नहीं हो सकती, जब तक अल्लाह न चाहे, और अल्लाह की चाहत अन्धाधुन्ध नहीं है। वह जो कुछ भी चाहता है अपने ज्ञान और अपनी तत्त्वदर्शिता के आधार पर चाहता है।
इस ज्ञान और तत्त्वदर्शिता के आधार पर जिसे वह अपनी दयालुता का पात्र समझता है, उसे अपनी दयालुता में प्रविष्ट कर लेता है और जिसे वह ज़ालिम पाता है उसके लिए दुखदायिनी यातना की व्यवस्था उसने कर रखी है।